Ghar Nahi Ja Paaye Na Iss Bar Bhi By Zakir Khan
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी By Zakir khan
बस का इंतज़ार करते हुए ,मेट्रो में खड़े-खड़े
रिक्शा में बैठे हुए ,गहरे शुन्य में क्या देखते रहते हो ?
गुम सा चेहरा लिए क्या सोचते हो ?
क्या खोया क्या पाया का हिसाब नहीं लगा पाए ना इस बार भी ?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी ?
भीड़ में अकेले रहते हो ,घर पे जाकर भी बस खाते और सोते हो ,
घर अब मकान बन गया है तुम्हारा चाहे जैसे करीने से सजाये हो ,
लाख बातें हो बोलने को पर अब कोई सुनने वाला नहीं
कैलकुलेटर पर खर्चे जोड़ते-जोड़ते ,नहीं लगा पाए ना ज़िन्दगी का हिसाब भी ?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी ?
नहीं रहे अब पहले जैसे त्योहार ,ऐसा बोल-बोल के खुद को मनाते हो ,
दीवार पर देखते-देखते पता नहीं क्या सोचते-सोचते छुट्टियाँ काट जाते हो।
इंटेलेक्चुअल सा बन के ,होली तो बच्चों का बोल के खुद को समझाते हो।
ज्यादा हो गया तो नशे में खुद को डुबाते हो।
नशे में डूबते -डूबते अपने रिश्तों का हिसाब नहीं लगा पाये ना इस बार भी ?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी ?